Post: बाढ़ – एक प्रशासन जनित विभीषिका

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आज चम्पारण क्या पूरे उत्तर बिहार में बाढ़ की विभीषिका को प्रतिदिन समाचार पत्र के पन्नों और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर देख यही लगता, आखिर क्या हम अभिशापित है, जो प्रकृति हमेशा हम पर कहर बरपाने के लिए तैयार बैठी रहती है या हमें चंद लोगों ने अपने फायदे के लिए अभिशापित बना दिया है, जिनके शब्दों पर हम विश्वास करते हैं।
वैसे कहने को तो लोग कहते है कि ये प्रकृति जनित परेशानी है, या फिर हम पड़ोसी देश पर जिम्मेवारी डाल कर शांत हो जाते और आज कल तो एक नया राग चीन का भी है। दूसरा राग हम मानव जनित प्रदूषण को मानते हैं। मगर हम बात न करते तो प्रशासन का, उनकी ज़िम्मेदारी का और नतीजा भुगतना आम जनता को पड़ता है।
यदि इतिहास के पन्नों को झाँका जाये तो ये विभीषिका कोई नई नहीं है, हरेक साल उत्तर बिहार की जनता इससे ग्रसित होते रहती है, चाहे वो कोसी नदी के पानी के माध्यम से हो या गंडक के पानी से वो भी 1954 से। इससे निदान पाने के लिए सरकार भी आयोग पर आयोग गठित करती रही। एक केस स्टडी जिसमें हमारे नौकरशाहों को चीन जिसने खुद कभी अपने बाढ़ पर कंट्रोल न कर पाया उसको पढ़ने के लिए भेज दिया जबकि वहीं काम हमारे देश में अंग्रेजों के द्वारा 1854 में ही अपनाया गया, जो कि पूर्ण रूप से करदाताओं के पैसों का दुरुपयोग था। धीरे-धीरे प्रशासन भी एक गलत नीति के तहत नदियों को बांध के माध्यम से संकरा करती गयी जो उसके प्रवाह के तेजी को बढ़ाते गया। जो और अधिक विनाशकारी होती गयी। जबकि एक समय एक 60000 व्यक्तियों के एक सम्मेलन जिसमें भाभा भी सम्मिलित थे, इस बाढ़ पर कार्य-प्रणाली एक बांध के माध्यम से विकसित की गयी जिसे हमारे नौकरशाहों द्वारा उस प्रोजेक्ट को टाल कर उसका खर्च बढ़ाया गया अंततः उस प्रोजेक्ट को बंद कर चीन और अंग्रेजों के नक्शे कदम पर सिर्फ तात्कालिक उपायों का प्रयोग किया गया जिसमें नदी के किनारे बांध बनाने का उपाय था जिससे वो संकरी होती गयी। इस प्रयोग में प्रत्येक साल बाढ़ का आना चालू रहा परिणाम स्वरूप जनता के नुकसान के भरपाई के नाम पर सरकारी खजाने के लूट का एक माध्यम सा खुल गया।
आज नदी के किनारों को घेरने के नाम पर जो बाढ़ पहले 2.5 मिलीयन हेक्टेयर पर आती थी वो बाढ़ अब 6.8
मिलीयन हेक्टेयर पर आती है, और किनारों की लंबाई दिन प्रतिदिन सरकार, नौकरशाह बढ़ाते ही चले जा रहे। एक वास्तविक उपाय के जगह पैसे के खेल के लिए बिहार को बाढ़ में डुबोना चालू है। इस पैसे के खेल में न सिर्फ नेता बल्कि नौकरशाह, ठेकेदार भी शामिल है, जिन्हें प्रत्येक साल किनारे बनाने के नाम पर टेंडर के अलावे बाढ़ पीड़ितों के मदद के नाम पर मिलने वाली सहायता का भी बंदरबाँट करने का एक लाइसेन्स-सा मिल गया। जिस नदी को हम माँ कहते थे उसे बचपन से ही हमारे दिमाग में किताबों के माध्यम से अभिशाप के रूप में प्रचारित किया गया। सरकारी सिस्टम अपनी असफलताओं को बचपन में किताबें पढ़ा कर छुपाने लगा।
जबकि वहीं नीदरलैंड ने 1993 और 1995 के बाढ़ से सीख लेकर एक दीर्घकालिक योजनाओं पर काम किया जिसका परिणाम Room for the River के रूप में सामने आया जो कि नदियों को उनका प्राकृतिक स्वरूप देते हुए उनका प्रयोग था।
मगर हमारे नौकरशाह तो विदेश सिर्फ पर्यटन के लिए जाते है, वास्तविक परिस्थिति से तो आम जनता को जूझने के लिए छोड़ दिया जाता। आखिर छोड़ा क्यों न जाए, पैसे कमाने का नया मौका जो मिल जाता। एक नजर से देखा जाए तो बाढ़ कभी किनारों के लिए वरदान होती थी, जो दोमट मिट्टी को तट पर लाती थी और उस समय नदियों के किनारे और बांध न हुआ करते थे। जैसे-जैसे प्रशासन ने उस पर बांध इत्यादि के माध्यम से कब्जा करना चालू किया वो भयावह ही होते चली गयी।

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