Post: धार्मिक स्थल, उसका निर्माण और प्राचीन अवधारणाएँ…

Home
Blogs
आज कल के समाचार में मंदिरों में व्याप्त भ्रस्टाचार बहुत ही प्रमुखता से
भारत के प्रमुख खबरिया चैनलों ने दिखाई। और समय के साथ मंदिरों में चढ़ाए
जाने वाले दान पर भी चर्चा बहुत ही जरुरी थी। आखिर ऐसा क्यों हो गया कि
मंदिरों में आज-कल इतना भ्रष्टाचार व्याप्त है, भगवान को भी इन मंदिरों में
न छोड़ा गया।
मगर अंत में सबसे अजीबों गरीब बात इस देश की लोकतंत्र के तरह बुराई तो सभी
कर लेते मगर कोई भी उस समस्या का समाधान नहीं बताता। तो आइये जाने इतिहास
इस दान के बारे में क्या कहता है?

अगर हम प्राचीन वेद, धर्म ग्रन्थ जैसे कि महाभारत, रामायण या गीता इत्यादि
को ध्यान से पढ़े तो एक बात सर्वतया है कि उस समय मंदिर का कोई सिद्धांत न
था। हाँ ब्राह्मण वर्ग उस समय हुआ करता था, मगर आज के जाति व्यवस्था आधारित
नहीं वरन् वर्ण व्यवस्था आधारित जिनको उस समय के समाज में विद्वान, आचार्य
इत्यादि कि संज्ञा प्राप्त थी। ये ब्राह्मण राज्य के सलाहकार भी होते थे। इन ब्राह्मणों का कार्य शिक्षा प्रदान करना, चिकित्सा व्यवस्था को देखना इत्यादि हुआ करता था।  यह सभी कार्य गुरुकुल, आश्रम
इत्यादि जगह पर हुआ करते थे।
इन समाज के कल्याण वाली संस्थाओं को चलाने के लिए दान की व्यवस्था होती थी। जिसे उस राज्य का हरेक प्रजा ही नहीं बल्कि राजपरिवार भी मानता था। उस समय यह दान उस व्यवस्था को चलाने के लिए होती थी जिसके अंतर्गत सबको समान शिक्षा का अधिकार, जीवनोपयोगी रोजगार आधारित शिक्षा, समान चिकित्सा व्यवस्था इत्यादि प्राप्त थी। इसमें गुरुकुल में जिस अवस्था में एक गरीब प्रजा के बच्चे रहते थे उसी अवस्था में राजपरिवार के बच्चे भी। कहीं पर दिखावा न होता था। कई जगह तो यह भी व्यवस्था थी की राजकुमारों को उनके नाम से कोई न जाने जिससे सभी समान रूप से उस गुरुकुल में रहे।
ब्राह्मणों के निवास स्थल भी चूंकि उन्हीं आश्रम और गुरुकुल में हुआ करते थे, और वो अपना समय इन जनहितकारी कार्यों में गुजारते थे तो यह दान उनके छात्रों, गुरुकुल के आचार्यों, कर्मचारियों इत्यादि पर खर्च की जाती थी।
मगर समय के साथ हमारी व्यवस्था प्रणाली में इतने गंभीर घाव किए जाने लगे जिसके कारण जाति-व्यवस्था का आगमन हुआ और फिर चालू हुआ धर्म के नाम पर धार्मिक स्थलों का निर्माण। जिसका कोई वास्तविक उपयोग अभी तक नजर नहीं आता दिख रहा सिवा इस बात के की उस धार्मिक स्थलों के बाहर आज के पंडितों की भीड़ सी नजर आती है जो धर्म के नाम पर आए उन मंदिरों में आए लोगों पर टूट पड़ते है। हरेक जगह दान-पात्र नजर आता मगर उसका कोई सुखद उपयोग नजर नहीं आता। मंदिरों के खजाने भरे जा रहे मगर उसका उपयोग कैसे हो वो कोई न जानता। न आम जनता इस पर कोई सवाल खड़े करती है न अपने कमाई के हिस्से का उपयोग देखती है। वो बस अंध-भक्ति में दान किए चली जाती है, भले ही उन पैसों को मंदिर में स्थापित कुछ पंडित कुछ भी कर रहे हो, कोई उसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेता।
मैं ऐसा न कह रहा कि सारे मंदिर खराब है, इन सब में सबसे आगे बढ़ कर आया एक मंदिर बिहार की राजधानी पटना का हनुमान मंदिर है जो इस दान के पैसे का उपयोग लोगों की कम दर पर चिकित्सा में कर रहा। मगर ऐसे तो बिरले ही मिलेंगे।
आज जरूरत है हमारे धर्म के लोगों को मंदिर की व्यवस्था समझने की और अपने पैसों के सदुपयोग की। क्या हम जो दान मंदिर में कर रहे क्या वो सुरक्षित हाथों में है या उस पैसे का सदुपयोग जन कल्याण में हो रहा या सिर्फ कुछ न्यासी और पंडितों के परिवार के पेट-पूजन के लिए हो रहा।
पैसा आपका है, हम तो सिर्फ यही कहेंगे पुराने समय की तरह जब मंदिर नहीं हुआ करते थे, अपने घर में भगवान की व्यवस्था कीजिये उन पर कुछ समर्पित कीजिये और साल के अंत में किसी गरीब के कल्याण में उस अर्जित रकम को लगा दीजिये। इस तरह मालूम न कितनों का भला हो जाए। हम पुनः गुरुकुल की व्यवस्था तो नहीं कर सकते मगर एक गरीब को जरूर पढ़ा सकते या उसका इलाज करा सकते है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *