Post: आर्य समाज और उसकी घटती प्रासंगिकता

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पिछले 3-4 महीने से भारत में बहुत सारे विवाह हो चुके या हो रहे हैं। यदि एक नजर दौड़ाये तो हमारे यहाँ हिन्दू समाज में विवाह के दो तरीके प्रचलित है: 1. सनातन विधि 2. आर्य समाज विधि।
कई बार सुनने को आता कि कई शिक्षित लोग कहते की आर्य समाज बेहतर है तो कोई कहता की सनातन। आज देखिये तो हिन्दू वर्ग भी संशय में नजर आता कि सनातन बेहतर या आर्य समाज। फलस्वरूप कई घरों में तो जरुरत के हिसाब से पूजन की दोनों ही विधियाँ प्रयोग में लायी जाती है। मगर फिर भी विवाह में अधिकतर जगह सनातन विधि ही नजर आती यहाँ तक कि जिन घरों में मुख्य पूजन के लिए आर्य समाज विधि प्रयोग की जाती रही हैं वो घर भी अब सनातन विधि की तरफ रुख कर रहे हैं। सही मायनों में देखे तो आज के समय में आर्य समाज पद्धति भी उसी जगह पर जाता दिख रहा जहाँ सनातन पूजन विधि है।
यदि हम इतिहास के पन्नों की तरफ रुख करे तो पाएंगे कि समय के साथ सनातन विधि के वेद से विमुखता, गलत नियमों और पंडितों के ढोंग इत्यादि को ख़त्म करने के लिहाज से आर्य समाज का गठन हुआ था, जिसको वेद आधारित बनाया गया। इसके अलावा इसमें तत्कालीन समाज में व्याप अन्य बुराइयों जैसे की मुख्यतः दहेज़ प्रथा, पर्दा प्रथा इत्यादि के भी खिलाफ तैयार किया गया। कुछ समय तो इसके विद्वानों के कारण काफी विकास भी होता रहा, जो धीरे धीरे समाज में एक बदलाव का प्रतीक चिन्ह भी बनते गयी। कुछ हद तक आर्य समाज ने हिन्दू समाज की बहुत सारी कुरीतियों को दूर करने के लिए बहुत अच्छा भूमिका भी निभाया। मगर यह सर्वविदित है कि जब बच्चे छोटे होते है तो वो बहुत निर्दोष होते हैं, उनमें छल कपट जैसी कोई भी बात न होती न कोई बुराइयाँ। मगर समय के साथ उन मासूम बच्चों में बुराइयाँ भी आती जाती। ठीक उसी प्रकार आर्य समाज पद्धति में भी सनातन धर्म वाली बुराइयाँ घर करने लगी। जैसे सनातन धर्म के जिन कुरीतियों को ख़त्म करने के लिए यह पद्धति बनायीं गयी वो कुरीतियाँ अब इस पद्धति में भी नजर आने लगी है जैसे – जिस पाखण्ड और ढोंग के खिलाफ इस पद्धति ने जन्म लिया आज वो ढोंग और पाखण्ड इस पद्धति में भी नजर आने लगी है।
जहाँ अपेक्षा की गयी थी की इसके विद्वान सामान्य तरीके से अपनी जिंदगी का गुजर बसर करेंगे वो इस पद्धति को जीवन-यापन का तरीका बनाने में लगे हुए है जिसके कारण आज भी इस पद्धति में पूजन कराने वाले आज यजमान से अधिकतम दक्षिणा या सामग्री की मांग करते है।
जहाँ यह अपेक्षा की गयी थी की इस पद्धति में कोई भी पूजा करा सकता है वहाँ यह पद्धति भी आज के समय में पुरोहित-प्रधान होते जा रही है।
जहाँ पूजन पद्धति में एक समानता होनी चाहिए वहाँ आज किसी आर्य समाज से सम्बन्ध रखने वाले किसी पुरोहित को एक प्रकार की पूजन दो भिन्न जगह पर कराने के लिए बोल दीजिये तो उनके पूजा कराने का तरीका तक बदल जाता जैसे लगता की पूजन पद्धति उन्हीं के द्वारा बनाया गया हो।
जहाँ समाज को अपेक्षा थी कि इसके माध्यम से दहेज़ प्रथा खत्म होगी मगर आज इस पद्धति में भी विश्वास करने वाले खुले आम दहेज़ की मांग रखते है।
धीरे धीरे तो यह पूजन पद्धति तो लगता कि आज मुख्यतः उन्हीं के काम आती जो प्रेम विवाह करते या फिर कम समय में पूजन कार्य को निपटाना चाहते। सिर्फ इतना ही नहीं कुछ जगह तो आर्य समाज पद्धति इस लिए भी प्रयोग लायी जा रही की फिल्मों में उसका चित्रांकन बहुत अच्छे से किया जाता और उससे वो प्रेरित हो जाते।
एक तरह से देखे तो आज आर्य समाज से जुड़े लोगों को पुनः अपने गिरेबान में झाँक कर देखना चाहिए कि जो वो कर रहे क्या वो सही है, क्या इस पद्धति को जन्म देने वाले महापुरुष ने आपसे यही अपेक्षा की थी। क्या आप सच में आर्य समाज के वेद आधारित पूजन का विकास करना चाहते है? आज जरुरत है एक पुनर्मन्थन की जिससे इस पद्धति को वो दिशा दी जा सके जो इसे कुछ समय के लिए सबका ख़ास बना दिया था,आज जरुरत है एक बदलाव की जिससे कहीं ऐसा न हो जाए की इसके प्रणेता द्वारा बनायीं गयी यह पद्धति इतिहास के पन्नों में दर्ज न हो जाए।

(नोट: लेखक एक आर्य समाज आधारित परिवार से है जहाँ उसके परिवार के लोग भी आर्य समाज पद्धति से पूजन कार्य वगैरह संपन्न कराते रहे हैं।)

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