सब्सिडी एक ऐसा शब्द जिसका जिक्र होते ही आँखों के सामने सरकार की विभिन्न योजनायें चलने लगती जिसे गरीबों के लिए बनाया गया है। ऐसी योजना जिससे गरीब लाभान्वित होकर अपने जीवन स्तर को आगे बढ़ाने की सोच सकते। लेकिन कहा जाता है कि दूर का ढोल ज्यादा ही सुहावना होता है, उसी प्रकार हमारी सरकार की सब्सिडी वाली योजनाएं भी दूर के ढोल की भाँति ही नजर आती।
जमीन पर जा कर देखने पर समझ आता जिन्हें सब्सिडी मिलनी चाहिए उन्हें तो सब्सिडी का abcd भी नहीं दिखता, उन्हें दिखाएँ जाते है चुनाव पूर्व सपनों की लड़ी। आज कृषि से लेकर रोजगार जहाँ देखे सब्सिडी सिर्फ बड़े लोगों के लिए बनी हुई दिखाई पड़ती। कृषि में देखों तो हमारे सीमांत और भूमिहीन किसानों के नाम पर तो सब्सिडी संबंधी कई योजनाएँ दिखाई तो देती मगर हकीकत में उन्हें उस सब्सिडी का एक कतरा भी नहीं मिल पाता, चाहे वो बीज वितरण हो या चाहे कृषि संबंधी उपस्करों की खरीद, प्रत्येक जगह सिर्फ मध्यम या बड़े किसान ही दिखते जो सब्सिडी का फायदा भी उठाते और अधिकतम मुनाफा कमा लेते। मगर वह छोटा किसान बाजार से बीज खरीदने के लिए बेबस है क्योंकि सरकार द्वारा दिए जाने वाले बीज के हिसाब से न उसके पास खेत है ना ही उपस्करों को खरीदने के लिए वो पैसे जिसका वो बाद में सब्सिडी ले सके।
यह किसान तो बेबस है बाजार के भाव से अपने बीज खरीदने को और बाजार के भाव से उपस्करों को भाड़े पर प्रयोग करने को या बाजार के मजदुर को खेती में प्रयोग करने को, और इन सब के बाद आती है उत्पादन करने के बाद उसे बेचने की बारी। वो उन बड़े किसानों की तरह तो है नहीं जो पैक्स जैसी सरकारी संस्था में बेच सके, न ही इतना बड़ा की वो बड़े शहरों के बाजार में इतने उत्पादन लागत के बावजूद वो अपने उत्पाद बेच सके। वो तो बिना किसी सब्सिडी के खेती करता और अपना उत्पाद भी औने-पौने भाव पर बनिया या नजदीकी बाजार में बेच आता। उसके हाथ आते तो कुछ रेवड़ियाँ जो उसके जीवन यापन के लिए नाकाफी होते होते। वहीँ बड़े किसान सब्सिडी, बड़े शहरों के बाजार, सरकारी एजेंसियों तक पहुँच हरेक जगह फायदे ही लेता फिरता है। हमें शुरू से यहीं सिखाया जाता रहा है यदि सब्सिडी नहीं रहे तो सामान महंगे हो जाएंगे तो हमारे असंख्य छोटे किसानों का क्या जो इनसे प्रतियोगिता भी नहीं रख पाते, आखिर ये कौन सा सरकारी न्याय है जो गरीबों के लिए नहीं बल्कि बड़ों के लिए हैं।
और यह तो सिर्फ इस सब्सिडी का एकमात्र पहलु है जो हमारे कृषि क्षेत्र से सम्बंधित है, ऐसा तो हरेक क्षेत्र में होता रहा है किसी व्यवसाय से लेकर उद्योग तक। एक तरफ जहाँ छोटे व्यवसायी को सरकार ऋण उच्च ब्याज दर पर देती है, वहीँ बड़े व्यवसायियों को कम दरों पर। एक तरफ जहाँ लघु उद्योग जगह की कमी, पूंजी की कमी, सरकारी मदद की कमी इत्यादि से खत्म हो रहे वहीँ सरकार बड़े उद्योगपतियों को कम ब्याज दर पर पूंजी, कच्चे माल से लिंकेज, कम दर पर ईंधन इत्यादि सुविधा देते रहती है। शायद भारत की यह एक ऐसी कहानी है जिसका जिम्मेदार कोई एक ख़ास पार्टी या नेता नहीं है बल्कि वो सारे पार्टी है जो इसी तर्ज पर आगे बढ़ रही है जिन्हें छोटे लोगों को तो सहायता देना ख़राब लगता मगर बड़े लोगों को थोड़ा नुकसान होने पर उसकी भरपाई की भी आम जनता के पैसे से गारंटी देता।
शायद देश की अधिकतर जनता काम तो करती है मगर किसी और के लिए, शायद किसी उद्योगपति के लिए, शायद हममें गुलामी की जंजीर इतनी कड़ी बाँधी गयी थी जिससे अभी भी दूर न निकल पाये है। मेरा तो भैया सिर्फ इतना ही कहना है कि सब्सिडी शब्द ही हमारा ज्यादा नुकसान करती आ रही जिसके बहाने सरकारें सिर्फ बड़ों को फायदा पहुंचाते जाती वही छोटों पर अपनी जान की भी आफत बन आई रहती।
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