चम्पारण एक ऐसा जगह जो ना जाने कितने मुख में अपनी मिठास बाँटती होगी, चाहे वो वहाँ की जलेबी में भरे रस से हो या फिर आपके थाली में पड़े खीर के ही माध्यम से । ऐसा मैं इसलिए भी कह पा रहा हूँ क्योंकि यहाँ गन्ने के किसान बड़े पैमाने पर गन्ने की खेती करते है जो यहाँ के चीनी मिलों में चीनी बनाने के लिए प्रयोग की जाती और यह चीनी मालूम न कितनों की थाली की मिठास बढ़ाती होगी। सिर्फ यहीं तक नहीं हमारे यहाँ होने वाले पर्व-त्यौहार और शादी वगैरह भी तो है जो ना जाने कितनों को एक दूसरे से मिलाती, नए रिश्तों को आगे बढ़ाती है और अपनी खुशियाँ जाहिर करने का मौका भी देती है।
जी हाँ, हम बात कर रहे हैं उसी चम्पारण की जिसका एक प्रमुख फसल गन्ना भी है। मगर अफसोस तो तब होता है जब इन्हीं मिठास भरने वाले किसानों की थाली में दो वक़्त खाने को नसीब न हो, वो भी ऐसे जगह पर जहाँ बड़ी मात्रा में चीनी मिल भी लगे हुए हैं जिसमें नामी गिरामी सार्वजनिक उद्यम हिंदुस्तान पेट्रोलियम के भी संयंत्र है। शायद आप सोच रहे होंगे की उस क्षेत्र में किसानों की फसल खराब हो गयी हो। तो आपका शक अभी दूर कर दिए करते है, ये किसान तो मारे हुए है सरकारी योजनाओं एवं हिन्दुस्तान पेट्रोलियम के इन संयंत्रों के।
कहने को तो सरकार ने पुराने चीनी मिल चालु करवा कर गन्ना के किसानों को राहत प्रदान की है, सरकार द्वारा दिखाए जाने वाले आंकड़े कुछ ऐसा ही कहते है जिसके बल पर हम यह भी कहते है की हमारे सरकार ने बहुत अच्छा काम किया है। मगर शायद हकीकत तो इसके कोसों दूर है। इस साल तो इन किसानों ने इन चीनी मिल की बदौलत गन्ने की खेती ही बंद कर दी। अब शायद आप फिर यह न सोचे की मिल बंद हो गया या फिर हमारे किसान पिछले फसल से बहुत ज्यादा कमा लिए होंगे, जी नहीं यह आपकी गलतफहमी होगी।
सरकार ने कहने को तो इस सार्वजनिक क्षेत्र की उद्यम के माध्यम से चीनी मिल चालू भी करवा दी, गन्ने भी ले लिए और उससे चीनी भी निकल गयी। मगर जब बात आयी किसानों को भुगतान करने की तब यह चीनी मिल यह कहता है कि आप भुगतान की राशि का चीनी ले जाओ मगर भुगतान नहीं मिलेगा। क्या हमारे किसानों ने इसीलिए गन्ने की खेती की थी कि उसे फिर चीनी को किसी साहूकार के यहाँ बेचना पड़े और उसके पीछे समय और पैसा दोनों गवाएँ, और फिर उस चीनी को तो वो क्या उसके परिवार वाले भी अकेले न खा सकते है, या इसलिए कि वो उस भुगतान राशि से प्राप्त आय से अपनी जिंदगी को चलाने के लिए रोजमर्रा के सामान खरीद सके और अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा सके। मगर शायद इन चीनी मिल को चलाने वाले सरकार से उच्च आय प्राप्त अधिकारियों को इससे क्या मतलब, वो तो सिर्फ अपनी ही समझते हैं और अपने स्वप्न में व्यस्त रहते। शायद इन सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम के सरकारी मालिकों ने यह नहीं सोचा था कि चीनी उत्पादन करना ही उनकी जिम्मेदारी नहीं बल्कि बाजार में उसे बेचना भी उनकी जिम्मेदारी हैं, मगर उन्हें बोलने जाये तो कौन, वो तो सरकारी आदमी है। शायद वो यह नहीं समझते की जिन किसानों ने फसल उनको दिया उसकी हरेक आह उसे ही लग रही है। शायद हमारे बिहार सरकार भी उतनी ही जिम्मेदार है जिसने चीनी मिलों को खुलवा तो दिया, मगर उस सार्वजनिक क्षेत्र की उपक्रम से कभी न पूछा कि चीनी की खपत का क्या, यह कभी नहीं देखा कि किसान को अभी तक भुगतान हुआ या नहीं या क्या कारण है जो इस क्षेत्र के किसान जो कभी गन्ने की खेती पर निर्भर थे उनके खेत खाली पड़े हुए हैं और वो मजदूरी कर रहे। मालुम न कब हमारे किसान भाई इस सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के महामहिमों से अपने हित की कुछ सोच पाएँ।
मैंने सोचा हमारी तथाकथित लोकतंत्र के पांचवें खम्भे के रूप में जाने जानी वाली मीडिया भी इस विषय को छेड़ती मगर उसे विकास या मुलभुत परेशानियों से क्या मतलब वो तो सिर्फ टी.आर.पी. के पीछे पड़ी रहती। उसे इससे क्या मतलब जो मिठाई उसकी थाली में है उसकी मिठास किसी ऐसे ही किसान के खेत से आई है, उसे तो सिर्फ सनसनी पैदा करने वाले खबरों से मतलब है।
शायद हमारी सरकार, मीडिया और ये तथाकथित सार्वजनिक क्षेत्र के महामहिम कब जागेंगे, शायद जब तक वो जागे काफी देर हो चुकी हो और कर्ज चुकाने के लिए हमारे किसान भाइयों की जमीन बिक्री को तैयार हो।
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