चम्पारण: एक ऐसा शब्द जो खुद में एक स्वप्न है जिसने अपनी धरती पर चाणक्य से लेकर महात्मा गांधी तक को स्वप्न दिखाएँ, उनकी आशाओं को जीवित होते दिखाया, जिसने एक भविष्य गढ़ा जो सबको एक राह दिखाती हुईं अपने राह चले जा रही।
ठीक उसी तरह से चम्पारण की इस धरती पर अँधेरे को हटाने का प्रयास करती एक संस्था उदित हुई। यह उस समय की बात है जब बिहार में कोई भी कम्पनियॉ आना न चाहती थी। समय के साथ इस कंपनी ने अपने लक्ष्य के अनुसार कई गाँव में अँधेरे की जगह रोशनी ले आई। यहाँ तक की उनमें से कई गाँवों का कायाकल्प भी हो गया। इस संस्था ने चम्पारण के वैसे जगह जा कर रोशनी दी जहाँ सरकार भी अपने नुमायन्दों को भेजने में सक्षम न हो। इस संस्था ने बिना कोई अतिरिक्त प्रशासनिक मदद और वित्तीय मदद के अपने विद्युत् प्रसारण को तमाम विसंगतियों के जारी रखा। इस संस्था ने उस क्षेत्र में काम करने की हिम्मत दिखाई जो सर्वत्र घाटे के लिए जानी जाती है। और इस क्षेत्र में काम करने की वजह से ही यह कंपनी नवीकरणीय ऊर्जा द्वारा विकेंद्रित विद्युत् प्रसारण के क्षेत्र में कार्य करने वाली सबसे बड़ी कंपनी के रूप में उभर गयी।
उसने उन परिस्थितियों में काम जारी रखा जब बिहार के अंदरुनी क्षेत्र में कोई भी संस्था प्रत्यक्ष रूप से काम नहीं करना चाहती। इस कंपनी ने अनेकों बिहारियों को एक राह दिखाई की बिहार में भी काम किये जा सकता है। इस कंपनी ने बिहार की पहचान पुरे देश विदेश में बदल कर रख दी।
मगर जहाँ इस कंपनी ने सोचा की वो कुछ ऐसा कर दिखाएगी जो सबके लिए अनुकरणीय बन जाएगा, वो कंपनी हमारे अपने ही सरकार एवम् लोगों की अदूरदर्शिता के कई परेशानी भी झेल रही है। जहाँ सरकार को चाहिए था की वो ऐसी कंपनियों को सहायता पहुँचायें एवम् तकनीकी सहायता प्रदान कर उसके कार्य क्षेत्र में बने रहने दे जिससे की ग्रामीण क्षेत्र में कार्य करने की इस कंपनी की हिम्मत भी बनी रहे। आज जहाँ सरकार उसी क्षेत्र में बिजली पहुँचाने की कोशिश कर रही जिस क्षेत्र को बिजली से मुलाक़ात इस कंपनी ने करवाई। जहाँ सरकार को चाहिए था की इस तरह की कंपनी को ही सभी तरह की सहायता देकर उस क्षेत्र में बिजली सुनिश्चित करती जिससे उसमें कार्य करने वाले कई ग्रामीण लोगों का रोजगार बच सके साथ में बिजली की उपलब्धि भी नवीकरणीय ऊर्जा के माध्यम से सुनिश्चित कराई जा सके। इस तरह सरकार एक बिहार से संचालित होने वाली एक विश्व स्तर की संस्था को बचा सकती साथ में अनविकरणीय ऊर्जा द्वारा होने वाले प्रदुषण से एक स्तर तक बचा सकती। मगर सरकार को तो वोट बैंक की लगी पड़ी है, जो बिजली के द्वारा दिख रही, उन्हें यह नहीं दिख रहा की इस तथाकथित संस्था में कितने ही लोग कार्यरत है, कहीं सबकी रोजी-रोटी पर तो असर न पड़ेगा, कहीं उनके परिवार के लोग भूखे तो न रह जाएँगे।
सरकार की जिम्मेदारी तो ठीक है मगर शायद कंपनी के वर्तमान स्थिति के लिए भी कुछ अपने बीच के लोग भी उतने ही जिम्मेदार है, आज के समय में भी हमारे चम्पारण को व्यवसायिक नजरिये से पुरे बिहार में बहुत ही खराब माना जाता है, उसी प्रकार हमारे बीच के लोग भी इस संस्था की वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार है। हमारे अपने लोग जिन्हें विद्युत् बिल देने का आदत नहीं उनकी मेहरबानियों के कारण कंपनी संघर्ष करते रहती है। यहाँ तक कि स्थानीय कर्मचारी भी कहीं न कहीं इसे नुकसान पहुँचाने में कोई कसर न छोड़ते, शायद वो यह न देख पाते वो अभी जो भी है इसी संस्था की बदौलत है, शायद उनके द्वारा पहुँचाये गए नुकसान से आने वाले दिन में कितने ही सारे लोगों की रोजी-रोटी न छीन जाएँ और कितने ही उन लोगों पर आश्रित परिवार का भोजन छीन ले। शायद कभी तो समझेंगे मगर तब तक शायद बहुत देर हो चुकी हो।
हमारे चम्पारण के लोग कहेंगे की बाबा ने खुद को निरपेक्ष न रखा और सिर्फ सरकार और लोगों को ही जिम्मेदार ठहरा दिया, शायद हमारी चम्पारण की जनता भी कुछ हद तक सही है कि इस संघर्षरत् कंपनी के लिए कहीं न कहीं संस्था भी जिम्मेदार है, जिसने शायद खुद को ऐसा समझ लिया जिसको कोई टक्कर न दे सकता था। शायद एक अहम् आ चुकी है जिसके कारण वो वास्तविक स्थिति को समझना न चाहते है। संस्था ने कभी यह नहीं सोचा की ग्राहक हमेशा उन्हीं का होता है जो उनकी नजर में सही उत्पाद प्रदान करता है, मगर समय के साथ संस्था ने कुछ ऐसे काम किये जो हरेक समय उसे नुकसान ही पहुँचाता गया, मगर संस्था खुद को बलवती समझने लगी, शायद कुछ लोगों का अहम् की मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ उसे संघर्ष की स्थिति में डाल रखा है, शायद कुछ लोगों को संस्था से ऊपर देखा जाने लगा, शायद गलतियों को छुपाने की अनगिनत कोशिश सी होने लगी। शायद संस्था यह न समझ पायी की वो अपने उत्पादकता में कहाँ कमजोर पड़ रही है, शायद उसने अपने से बड़ी कंपनियों से ये सीख न ली कि हरेक कार्य अकेले न किया जा सकता। शायद संस्था यह न समझ पायी की कई संस्थाओं के परस्पर सहायता से ही सभी संस्था चल पाती है, अन्यथा TATA जैसी कंपनियों को दूसरे से तकनिकी सामान खरीदने की क्या जरुरत? शायद संस्था ने कई सफ़ेद हाथी पाल रखे है जो असमय कंपनी के लिए परेशानी का सबब बन जाते है। शायद इस संस्था को समझना बहुत जरुरी है की उपभोक्ता को क्या चाहिए और संस्था उसे बिना कोई परेशानी कैसे उपलब्ध करा सकती है, ये न हो की उत्पाद उपलब्ध कराने के बाद उपभोक्ताओं के घर में घुस कर आप प्रयोग कर रहे हो, शायद संस्था के उच्चाधिकारी भी यह पसंद न करेंगे यदि उनके साथ कभी ऐसा हो।
आशा है की चाणक्य और चन्द्रगुप्त की वो धरती जहाँ आशाएँ बहुत ही बलवती होती है और कुछ कर दिखाती है, वहाँ यह संस्था भी अपनी कमजोरियों से सीखते हुए कुछ कर दिखाएगी, जिसमें सरकार, चम्पारण की जनता, संस्था के स्थानीय कर्मचारी एवम् संस्था के उच्चाधिकारियों का परस्पर सहयोग होगा। शायद वो भविष्य में आशा की वो किरण दिखाएँगे जो समस्त संसार को एक आशा की किरण बनकर एक राह दिखा सके।